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Wednesday, August 21, 2024

पाइन कोन मौसम संकेतक

 पाइन कोन मौसम संकेतक



1. प्राकृतिक मौसम संकेतक :-

  • खुले शंकु: जब हवा शुष्क होती है, तो पाइन शंकु खुल जाते हैं। यह दर्शाता है कि शुष्क मौसम जारी रहने की संभावना है, जिससे यह बाहरी गतिविधियों और बागवानी के लिए अच्छा समय है।
  • बंद शंकु: जब हवा नम होती है, तो पाइन शंकु बंद हो जाते हैं। यह अक्सर संकेत देता है कि बारिश या बढ़ी हुई आर्द्रता आने वाली है, जिससे बागवानों को गीली परिस्थितियों के लिए तैयार होने में मदद मिलती है।

2. लाभकारी कीटों को आकर्षित करना :-

  • पाइन शंकु आश्रय प्रदान करते हैं: पाइन शंकु के कोने और गड्ढे छोटे कीटों के लिए छिपने के बेहतरीन स्थान प्रदान करते हैं।
  • फूल वाले पौधों के पास लटकाएँ: पाइन शंकु को उन पौधों के पास रखें जिन्हें परागण की आवश्यकता होती है ताकि ये कीट अधिक बार आएँ।

3. वन्यजीवों के लिए आश्रय प्रदान करना :-

  • घोंसले बनाने की सामग्री: पक्षी अपने घोंसले बनाने के लिए पाइन शंकु के तराजू का उपयोग कर सकते हैं।
  • कीट खाने वाले पक्षियों को आकर्षित करें: आपके बगीचे के आस-पास आश्रय पाने वाले पक्षी प्राकृतिक रूप से कीटों की आबादी को नियंत्रित करने में मदद करेंगे।

4. प्राकृतिक कीट निवारक :-

  • आवश्यक तेलों में पाइन शंकु को भिगोएँ: पुदीना जैसे आवश्यक तेलों का उपयोग करें, जो कृन्तकों और कीटों को दूर भगाने के लिए जाने जाते हैं। कीट-मुक्त क्षेत्र बनाने के लिए अपने बगीचे के चारों ओर इन उपचारित पाइन शंकु को लटकाएँ।

5. बगीचे की सुंदरता को बढ़ाना :-

  • सजावटी आकर्षण: पाइन शंकु विभिन्न उद्यान थीम के साथ अच्छी तरह से मिश्रित होते हैं और उन्हें पेड़ों, बाड़ या बगीचे की संरचनाओं से लटकाया जा सकता है।
  • पर्यावरण के अनुकूल सजावट: पाइन शंकु जैसे प्राकृतिक तत्वों का उपयोग करना आपके बगीचे को सुंदर बनाने का एक पर्यावरण के अनुकूल तरीका है।

6. लाभकारी कवक को प्रोत्साहित करना :-

  • अपघटन: जैसे-जैसे पाइन शंकु विघटित होते हैं, वे मिट्टी को कार्बनिक पदार्थों से समृद्ध करते हैं, जिससे माइकोरिज़ल कवक के लिए अनुकूल वातावरण को बढ़ावा मिलता है।
  • पौधों का बेहतर स्वास्थ्य: माइकोरिज़ल एसोसिएशन वाले पौधे ज़्यादा स्वस्थ और ज़्यादा लचीले होते हैं।

7. लाभकारी शिकारियों के लिए आवास बनाना :-

  • आवास प्रावधान: पाइन शंकु की संरचना मकड़ियों और अन्य शिकारी कीटों के लिए उत्कृष्ट छिपने की जगह प्रदान करती है


Monday, June 20, 2022

खेतों में नीमास्त्र, ब्रम्हास्त्र, आग्नेयास्त्र का प्रयोग

खेतों में नीमास्त्र, ब्रम्हास्त्र, आग्नेयास्त्र का प्रयोग


नीमास्त्र, ब्रम्हास्त्र, आग्नेयास्त्र यह किसानों के वह अस्त्र है जिनका उपयोग कर किसानों द्वारा फसलों के कीड़े, मकोड़े व अन्य बिमारियों को नियंत्रित किया जा सकता है। जिन्हे वह अपने घर पर ही अपनी आवश्यकता के अनुसार परंपरागत विधि से तैयार कर सकते है।

नीमास्त्र :-

          सब्जी वाली फसलों में रस चूसक कीट और बग कीट का नियंत्रण करने के लिए नीमास्त्र का उपयोग लाभदायक होता है। इसके लिए 5 किलो नीम की पत्ती को कुचलें। इसमें 5 लीटर गौमूत्र और 2 किलो गाय का गोबर मिलाए। इस मिश्रण को 24 घण्टे सड़ने के लिए छोड़ दें। इसे एक - एक घण्टे के अंतराल में लकड़ी से घुमाकर हिलाते रहें। मिश्रण को निचोड़कर छान ले और 100 लीटर पानी में मिला लें। तैयार घोल का एक एकड़ क्षेत्र में छिड़काव हेतु उपयोग करें।

ब्रम्हास्त्र :-

3 किलो नीम की पत्ती को कुचलकर 10 किलो गौमूत्र में मिला दें। सीताफल, पपीता, अनार, अरण्डी और अमरूद की पत्ती 2 - 2 किलो मिलाकर पानी के साथ कुचले। दोनों मिश्रण  को मिलाकर पाँच बार तब तक उबालें जब तक तैयार मिश्रण आधा ना रह जाए। 24 घण्टे बाद इसे निचोड़कर छान लें। 2 - 2.5 लीटर मिश्रण को 100 लीटर पानी में मिलाकर एक एकड़ क्षेत्र में छिड़काव हेतु उपयोग करें।

आग्नेयास्त्र :-

एक किलो बेशरम की पत्ती, आधा किलो तीखी हरी मिर्च, आधा किलो लहसुन, आधा किलो नीम की पत्ती को कुचलकर 10 लीटर गौमूत्र में मिलाए। इसे तबतक उबालें जब तक गौमूत्र आधा ना रह जाए। मिश्रण को निचोड़कर छान ले। इसे बोतल में स्टोर भी किया जा सकता है। 2 - 3 लीटर मिश्रण 100 लीटर पानी में मिलाकर एक एकड़ क्षेत्र में छिड़काव हेतु उपयोग करें। यह हर तरह की फसल के हर तरह की कीट और बिमारियों को खत्म करने में सक्षम है।

Saturday, February 26, 2022

मूँग उत्पादन की उन्नत तकनीक

मूँग उत्पादन की उन्नत तकनीक


    मध्यप्रदेश में मूँग ग्रीष्म एवं खरीफ दोनों मौसम की कम समय में पकने वाली एक मुख्य दलहनी फसल है। मध्यप्रदेश में मूँग की फसल हरदा, होशंगाबाद, जबलपुर, ग्वालियर, भिण्ड, मुरैना, शिवपुरी जिले में अधिक मात्रा में उगाई जाती है। अतः किसान भाई उन्नत प्रजातियों एवं उत्पादन की उन्नत तकनीक को अपनाकर पैदावार को बढ़ा सकते है।

जलवायु :-

    मूँग के लिए नम एवं गर्म जलवायु की आवश्यकता होती है। मूँग की खेती वर्षा ऋतू में की जा सकती है। इसकी वृध्दि एवं विकास के लिए 25 - 32 °C तापमान अनुकूल पाया गया है। मूँग के लिए 750 - 900 मिमी वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्र उपयुक्त पाये गये है। पकने के समय साफ मौसम तथा 60 % आद्रता होना चाहिये। पकाव के समय अधिक वर्षा हानिप्रद होती है।

भूमि :-

    मूँग की खेती हेतु दोमट से बलुअर दोमट भूमियाँ जिनका पि. एच. 7.0 - 7.5 हो इसके लिए उत्तम है। खेत में  निकास उत्तम होना चाहिए।

भूमि की तैयारी :-

    खरीफ की फसल हेतु एक गहरी जुताई मिटटी पलटने वाले हल से करना चाहिए एवं वर्षा प्रारम्भ होते ही 2 - 3 बार देशी हल या कल्टीवेटर से जुताई कर खरपतवार रहित करने के उपरान्त खेत में पाटा चलाकर समतल करें। दीमक से बचाव के लिये क्लोरोपायरीफॉस 1.5 % चूर्ण 20 - 25 किलोग्राम / हैक्टेयर के मान से खेत की तैयारी के समय मिट्टी में मिलाना चाहिए।
    ग्रीष्मकालीन मूँग की खेती के लिए रबी फसलों के कटने के तुरन्त बाद खेत की तुरन्त जुताई कर 4 - 5 दिन छोड़कर पलेवा करना चाहिए। पलेवा के बाद 2 - 3 जुताइयाँ देशी हल या कल्टीवेटर से कर पाटा लगाकर खेत को समतल एवं भुरभुरा बनावे। इससे उसमें नमी संरक्षित ही जाती है व बीजों को अच्छा अंकुरण मिलता है।

 बुवाई का समय :-

    खरीफ मूँग की बुवाई का उपयुक्त समय जून के अंतिम सप्ताह से जुलाई का प्रथम सप्ताह है। ग्रीष्मकालीन फसल को 15 मार्च तक बोनी कर देनी चाहिए। बोनी में विलम्ब होने पर फूल आते समय तापक्रम वृध्दि के कारण फलियाँ कम बनती है। अथवा बनती ही नहीं है। इससे इसकी उपज प्रभावित होती है।

उन्नत किस्मों का चयन :-

    मूँग के अच्छे उत्पादन लिए सदैव उन्नत किस्मों का चयन करना चाहिए क्योंकि स्थानीय किस्में लम्बे समय में पकती है तथा रोग व व्याधियों का प्रकोप अधिक होता है जिससे उपज कम प्राप्त होती है। मध्यप्रदेश के अंतर्गत मूँग की फसल से अधिक उपज प्राप्त करने के लिए निम्नलिखित उन्नत किस्मों को अनुशंसित किया गया है।

किस्म का नाम

अवधि (दिन)

उपज (क्विंटल / हैक्टेयर)

प्रमुख विशेषतायें

टॉम्बे जवाहर मूँग-3 (टी.जे.एम.-3)

60 – 70

10 – 12

ग्रीष्म एवं खरीफ दोनों के लिए उपयुक्त।

फलियाँ गुच्छों में लगती है।

एक फली में 8 – 11 दाने।

100 दानों का वजन 3.4 – 4.4 ग्राम।

पीला मोजेक एवं पाउडरी मिल्डयू रोग हेतु प्रतिरोधक।

जवाहर मूँग-721

70 - 75

12 – 14

पूरे मध्यप्रदेश में ग्रीष्म एवं खरीफ दोनों मौसम के लिये उपयुक्त।

पौधे की ऊंचाई 53 – 65 सेमी.।

एक गुच्छे में 3 – 5 फलियाँ।

एक फली में 10 – 12 दाने।

पीला मोजेक एवं पाउडरी मिल्डयू रोग हेतु सहनशील।

के-851

60 – 65 (ग्रीष्म ऋतु)

70 – 80 (खरीफ ऋतु)

8 – 10 (ग्रीष्म ऋतु)

10 – 12 (खरीफ ऋतु)

ग्रीष्म एवं खरीफ दोनों मौसम के लिये उपयुक्त।

पौधें मध्यम आकार के (60 – 65 सेमी.)।

एक पौधें में 50 - 60 फलियाँ।

एक फली में 10 – 12 दाने।

दाना चमकीला हरा एवं बड़ा।

100 दानों का वजन 4.0 – 4.5 ग्राम।

एच.यू.एम.-1

65 - 70

8 – 9

ग्रीष्म एवं खरीफ दोनों मौसम के लिये उपयुक्त।

पौधें मध्यम आकार के (60 – 70 सेमी.)।

एक पौधें में 40 – 55 फलियाँ।

एक फली में 8 – 12 दाने।

पीला मोजेक एवं पर्णदाग रोग के प्रति सहनशील।

पी.डी.एम.-11

65 – 75

10 – 12

ग्रीष्म एवं खरीफ दोनों मौसम के लिये उपयुक्त।

पौधें मध्यम आकार के (55 – 60 सेमी.)।

मुख्य शाखाएं मध्यम (3 - 4)।

परिपक्व फली का आकार छोटा।

पीला मोजेक रोग प्रतिरोधी।

पूसा विशाल

60 – 65

12 – 14

ग्रीष्म एवं खरीफ दोनों मौसम के लिये उपयुक्त।

पौधें मध्यम आकार के (55 – 70 सेमी.)।

फली का साइज अधिक (9.5 – 10.5 सेमी.)।

दाना मध्यम चमकीला हरा।

पीला मोजेक रोग सहनशील।

बीजदर व बीज उपचार :-

    खरीफ में कतार विधि से बुवाई हेतु मूँग 20 किलोग्राम / हैक्टेयर पर्याप्त होता है। बसंत अथवा ग्रीष्मकालीन बुवाई हेतु 25 - 30 किलोग्राम / हैक्टेयर बीज की आवश्यकता पड़ती है। बुवाई से पूर्व बीज को कार्बेंडाजिम : केप्टान (1 : 2) 3 ग्राम दवा प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करें। ततपश्चात इस उपचारित बीज को विशेष राइजोबियम कल्चर की 5 ग्राम मात्रा प्रति किलोग्राम बीज की दर से परिशोधित कर बोनी करें।

बुवाई का तरीका :-

    वर्षा के मौसम में इन फसलों से अच्छा उत्पादन प्राप्त करने हेतु हल के पीछे पंक्तियों अथवा कतारों में बुवाई करना उपयुक्त रहता है।  खरीफ फसल के लिए कतार से कतार की दुरी 30 - 45 से. मी. तथा बसंत (ग्रीष्म) के लिए 20 - 22.5 से. मी. रखी जाती है। पौधे से पौधे की दुरी 10 - 15 से. मी. रखते हुए 4 से. मी. की गहराई पर बोना चाहिए।

खाद एवं उर्वरक :-

    उर्वरकों की मात्रा तत्व प्रति किलोग्राम / हैक्टेयर

नाइट्रोजन

फास्फोरस

पोटाश

गंधक

जिंक

20

40

20

25

20

    नाइट्रोजन, फास्फोरस व पोटाश उर्वरकों की पूरी मात्रा बुवाई के समय 5 - 10 से. मी. गहरी कूड़ में आधार खाद के रूप में दें।

सिंचाई व जल निकास :-

    प्रायः वर्षा ऋतू में मूँग की फसल को सिंचाई की आवश्यकता नहीं पड़ती है फिर भी इस मौसम में एक वर्षा के बाद दूसरी वर्षा होने के बिच लम्बा अन्तराल होने पर अथवा नमी की कमी होने पर फलियाँ बनते समय एक हल्की सिंचाई की आवश्यकता होती है। बसंत एवं ग्रीष्म ऋतू में 10 - 15 दिन के अंतराल पर सिंचाई की आवश्यकता होती है। फसल पकने के 15 दिन पूर्व सिंचाई बंद कर देना चाहिए। वर्षा के मौसम में अधिक वर्षा होने पर अथवा खेत में पानी का भराव होने पर फालतू पानी को खेत से निकालते रहना चाहिए, जिससे मृदा में वायु संचार बना रहता है।

खरपतवार नियंत्रण :-

    मूँग की फसल में निंदा नियंत्रण सही समय पर नहीं करने से फसल की उपज में 40 - 60 प्रतिशत तक की कमी हो सकती है। खरीफ मौसम में फसलों में सकरी पत्ती वाले खरपतवार जैसे संवा, दुब घास एवं चौड़ी पत्ती वाले खरपतवार जैसे पत्थरचटा, कनकवा, महकुआ, सफेद मुर्ग, हजारदाना एवं लहसुआ तथा मोथा आदि वर्ग के खरपतवार बहुतायत से निकलते है। फसल व खरपतवार की प्रतिस्पर्धा की क्रांतिक अवस्था मूँग में प्रथम 30 - 35 दिनों तक रहती है। इसलिए प्रथम निराई-गुड़ाई 15 - 20 दिन पर तथा द्वितीय 35 - 40 दिन पर करना चाहिए। कतारों में बोई गयी फसल में व्हील हो नामक यंत्र द्वारा यह कार्य आसानी से किया जा सकता है। चूंकि वर्षा के मौसम में लगातार वर्षा होने पर निराई-गुड़ाई हेतु समय नहीं मिल पाता साथ ही श्रमिक अधिक लगने से फसल लागत बढ़ जाती है। इन परिस्थितियों में खरपतवार नियंत्रण के लिए निम्न खरपतवारनाशक रसायन का छिड़काव करने से भी खरपतवारों का प्रभावी नियंत्रण किया जा सकता है। खरपतवारनाशक दवाओं के छिड़काव के लिए हमेशा फ्लैट फेन नोजल का ही उपयोग करें।

खरपतवारनाशी रसायन का नाम

मात्रा (ग्राम सक्रिय पदार्थ / हैक्टेयर)

प्रयोग का समय

नियंत्रित खरपतवार

पेन्डिमिथिलीन

700 ग्राम

बुवाई के 0 – 3 दिन तक अंकुरण के पहले।

घासकुल एवं कुछ चौड़ी पत्ती वाले खरपतवार।

इमेजाथायपर

100 ग्राम

बुवाई के 20 दिन बाद।

घासकुल, मोथाकुल एवं चौड़ी पत्ती वाले खरपतवार।

क्यूजालोफाप ईथाइल

40 – 50 ग्राम

बुवाई के 15 – 20 दिन बाद।

घासकुल के खरपतवारों का प्रभावी नियंत्रण।

कीट नियंत्रण :-

    मूँग की फसल में प्रमुख रूप से फली भ्रंग, हरा फुदका, माहू तथा कम्बल किट का प्रकोप होता है। पत्ती भक्षक कीटों के नियंत्रण हेतु क्विनोल्फास की 1.5 लीटर या मोनोक्रोटोफॉस की 750 मि. ली. तथा हरा फुदका, महू एवं सफेद मक्खी जैसे रस चूसक कीटों लिए डायमिथोएट 1000 मि. ली. प्रति 600 लीटर पानी या इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एस. एल. प्रति 600 लीटर पानी में 125 मि. ली. दवा के हिसाब से प्रति हैक्टेयर छिड़काव करना लाभप्रद रहता है।

रोग नियंत्रण :-

    मूँग में अधिकतर पीला रोग, पर्णदाग तथा भभूतिया रोग प्रमुखतः आते है। इन रोगों की रोकथाम हेतु रोग निरोधक किस्मों का उपयोग करना चाहिए। पीला रोग सफेद मक्खी द्वारा फैलता है इसके नियंत्रण हेतु मेटासिस्टॉक्स 25 इ. सी. 750 - 1000 मि. ली. का 600 लीटर पानी में घोल कर प्रति हैक्टेयर छिड़काव 2 बार 15 दिन के अंतराल पर करें। फफूंद जनित पर्णदाग (अल्टरनेरिया / सरकोस्पोरा / माइरोथीसियस) रोगों के नियंत्रण हेतु डायइथेन एम.-45, 2.5 ग्राम / लीटर या कार्बेन्डाजिम + डायइथेन एम.-45 की मिश्रित दवा बनाकर 2.0 ग्राम / लीटर पानी में घोलकर वर्षा दिनों को छोड़कर खुले मौसम में छिड़काव करें। आवश्यकतानुरूप छिड़काव 12 - 15 दिनों बाद पुनः करें।

मूँग के प्रमुख रोग एवं नियंत्रण :-

पीला मोजेक

रोग प्रतिरोधी अथवा सहनशील किस्मों जैसे टी.जे.एम.-3, के.-851, पन्त मूँग-2, पूसा विशाल, एच.यू.एम.-1 का चयन करें।

प्रमाणित एवं स्वस्थ बीजों का प्रयोग करें।

बीज की बुवाई जुलाई के प्रथम सप्ताह तक कतारों में करें प्रारम्भिक अवस्था में रोग ग्रसित पौधों को उखाड़ कर नष्ट करें।

यह रोग विषाणु जनित है जिसका वाहक सफेद मक्खी कीट है जिसे नियंत्रित करने के लिये ट्रायजोफॉस 40 ईसी 2 मिली / लीटर अथवा थायोमेथोक्साम 25 डब्लू.जी. 2 ग्राम / लीटर या डायमेथोएट 30 ईसी 1 मिली / लीटर पानी में घोल बनाकर 2 या 3 बार 10 दिन के अंतराल पर आवश्यकता अनुसार छिड़काव करें।

सरकोस्पोरा पर्णदाग

रोग रहित स्वस्थ पौधों का प्रयोग करें।

खेत में पौधें घने नहीं होने चाहिये पौधों का 10 सेमी. के हिसाब से विरलिकारण करें।

रोग के लक्षण दिखाई देने पर मेन्कोजेब 75 डब्लू.पी. की 2.5 ग्राम / लीटर या कार्बेन्डाजिम 50 डब्लू.पी. की 1 ग्राम / लीटर दवा का घोल बनाकर 2 – 3 बार छिड़काव करें।

एंथ्राक्नोज

प्रमाणित एवं स्वस्थ बीजों का प्रयोग करें।

फफूँदनाशक दवा जैसे मेन्कोजेब 75 डब्लू.पी. 2.5 ग्राम / लीटर या कार्बेन्डाजिम 50 डब्लू.पी. की 1 ग्राम / लीटर का छिड़काव बुवाई के 40 एवं 55 दिन पश्चात करें।

चारकोल विगलन

बीजोपचार कार्बेन्डाजिम 50 डब्लू.पी. की 1 ग्राम / किग्रा बीज के हिसाब से करें।

2 – 3 वर्ष का फसल चक्र अपनाये तथा फसल चक्र में ज्वार, बाजरा फसलों को सम्मिलित करें।

पाउडरी मिल्डयू

रोग प्रतिरोधी किस्मों का चयन करें।

समय से बुवाई करें।

रोग के लक्षण दिखाई देने पर कैराथन या सल्फर पाउडर 2.5 ग्राम / लीटर पानी की दर से छिड़काव करें।

फसल पध्दति :-

    मूँग कम अवधि में तैयार होने वाली दलहनी फसल है जिसे फसल चक्र में सम्मिलित करना लाभप्रद है। मक्का - आलू - गेँहू - मूँग (बसंत), ज्वार + मूँग - गेंहूँ, अरहर + मूँग - गेंहूँ, मक्का + मूँग - गेंहूँ। अरहर की दो कतारों के बीच मूँग की दो कतारे अन्तः फसल के रूप में बोना चाहिए। गन्ने के साथ भी इनकी अंतरवर्तीय खेती सफलता पूर्वक की जा सकती है।

कटाई एवं गहाई :-

    मूँग की फसल क्रमशः 65 - 70 दिन में पक जाती है। अर्थात जुलाई में बोई गई फसल सितम्बर तथा अक्टूबर के प्रथम सप्ताह तक कट जाती है। फरवरी - मार्च में बोई गई फसल मई में तैयार हो जाती है। फलियाँ पक्कर हल्के भूरे रंग की अथवा काली होने पर कटाई योग्य हो जाती है। पौधों में फलियाँ असमान रूप से पकती है यदि पौधों की सभी फलियों के पकने की प्रतीक्षा की जाये तो ज्यादा पकी हुई फलियाँ चटकने लगती है अतः फलियों की तुड़ाई हरे रंग से काला रंग होते ही 2 - 3 बार में में करें एवं बाद में फसल को पौधें के साथ काट ले। अपरिपक्वास्था में फलियों की कटाई करने से दानों की उपज एवं गुणवत्ता दोनों खराब हो जाते है। हॅसिए से काटकर खेत में एक दिन सुखाने के उपरान्त डण्डे से पिट कर या बैंलो को चलाकर दाना अलग कर लेते है वर्तमान में मूँग एवं उड़द की थ्रेसिंग हेतु थ्रेसर का उपयोग कर गहाई कार्य किया जा सकता है।

उपज एवं भण्डारण :-

    मूँग की खेती उन्नत तरीके से करने पर 8 - 10 क्विंटल / हैक्टेयर औसत उपज प्राप्त की जा सकती है। मिश्रित फसल में 3 - 5 क्विंटल / हैक्टेयर उपज प्राप्त की जा सकती है। भंडारण करने से पूर्व दानों को अच्छी तरह धुप में सुखाने के उपरान्त ही जब उसमे नमी की मात्रा 8 - 10 % रहे तभी वह भण्डारण के योग्य रहती है।

Saturday, January 22, 2022

उड़द उत्पादन की उन्नत तकनीक

 उड़द उत्पादन की उन्नत तकनीक


    उड़द के लिये नम एवं गर्म मौसम की आवश्यकता पड़ती है। उड़द की फसल की अधिकतर जातियाँ प्रकाशकाल के लिए संवेदी होती है। वृध्दि के लिये 25–30 डिग्री सेंटीग्रेट तापमान उपयुक्त होता है। 700–900 मिमी वर्षा वाले क्षेत्रों में उड़द को सफलतापूर्वक उगाया जाता है। फूल अवस्था पर अधिक वर्षा होना हानिकारक है। पकने की अवस्था पर वर्षा होने पर दाना खराब हो सकता है। उड़द की खरीफ एवं ग्रीष्मकालीन खेती की जा सकती है।

भूमि का चुनाव एवं तैयारी :-

    उड़द की खेती विभिन्न प्रकार की भूमि मे होती है। हल्की रेतीली, दोमट या मध्यम प्रकार की भूमि जिसमें पानी का निकास अच्छा हो उड़द के लिये अधिक उपयुक्त होती है। पी.एच. मान 7–8 के बीच वाली भूमि उड़द के लिए उपजाऊ होती है। अम्लीय व क्षारीय भूमि उपयुक्त नहीं है। वर्षा आरम्भ होने के बाद दो–तीन बार हल या बखर चलाकर खेत को समतल करे। वर्षा आरम्भ होने के पहले बोनी करने से पौधों की बढ़वार अच्छी होती है।

उड़द की उन्नत किस्में :-

    मध्यप्रदेश के लिये अनुमोदित जातियों का चुनाव करें।

किस्म

पकने का दिन

औसत पैदावार (क्विंटल / हेक्टेयर)

अन्य

टी-9

70 – 75

10 – 11

बीज मध्यम छोटा, हल्का काला, पौधा मध्यम ऊंचाई वाला।

पंत यू-30

70

10 – 12

दाने काले मध्यम आकार के, पीला मौजेक क्षेत्रों के लिये उपयुक्त।

खरगोन-3

85 – 90

8 – 10

दाना बड़ा हल्का काला, पौधा फैलने वाला ऊंचा।

पी. डी. यू.-1 (बसंत बहार)

70 – 80

12 – 14

दाना काला बड़ा, ग्रीष्म के लिये उपयुक्त।

जवाहर उड़द-2

70

10 – 11

बीज मध्यम छोटा चमकीला काला, तने पर ही फल्लियाँ पास-पास गुच्छों में लगती है।

जवाहर उड़द-3

70-75

4 – 4.80

बीज मध्यम छोटा हल्का काला,पौधा मध्यम कम फैलने वाला।

बीज की मात्रा एवं बीज उपचार :-

    उड़द का बीज 15–20 किलो प्रति हेक्टेयर की दर से बोना चाहिये। बुवाई के पूर्व बीज को 3 ग्राम थायरम या 2.5 ग्राम डायथेन एम-45 प्रति किलो बीज के मान से उपचारित करें। जैविक बीजोपचार के लिये ट्राइकोडर्मा फफूँद नाशक 5–6 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से उपयोग किया जाता है।

बोनी का समय एवं तरीका :-

    मानसून के आगमन पर या जून के अंतिम सप्ताह में पर्याप्त वर्षा होने पर बुवाई करें। बोनी नाली या तिफन से करें, कतारों की दूरी 30 सेमी. तथा पौधों से पौधों की दूरी 10 सेमी. रखें तथा बीज 4–6 सेमी. की गहराई पर बोयें।

खाद एवं उर्वरक की मात्रा :-

    नत्रजन 20–30 किलोग्राम व स्फुर 50–60 किलोग्राम पोटाश 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर के हिसाब से दें। सम्पूर्ण खाद की मात्रा बुवाई के समय कतारों मे बीज के ठीक नीचे डालना चाहिये। दलहनी फसलों में गंधक युक्त उर्वरक जैसे सिंगल सुपर फास्फेट, अमोनियम सल्फेट, जिप्सम आदि का उपयोग करना चाहिये। विशेषतः गंधक की कमी वाले क्षेत्र मे 20 किलोग्राम गंधक प्रति हेक्टेयर गंधक युक्त उर्वरकों के माध्यम से दें।

सिंचाई :-

    उड़द की फसल वर्षा आधारित है। यदि समय–समय पर वर्षा होती है तो सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है। ग्रीष्मकालीन फसल में 3–4 सिंचाई की आवश्यकता प्रति 20 दिन के अन्तराल से आवश्यक होती है। क्रांतिक अवस्था फूल एवं दाना भरने के समय खेत में नमी न हो तो एक सिंचाई देना चाहिये।

निराई–गुड़ाई :-

    खरपतवार फसलों के अनुमान से कही अधिक क्षति पहुँचाते है। अतः विपुल उत्पादन के लिये समय पर निराई–गुड़ाई कुल्पा व डोरा आदि चलाते हुये अन्य आधुनिक निंदानाशक का समुचित उपयोग करना चाहिये। निंदानाशक बासालीन 800 मिली. से 1000 मिली. प्रति एकड़ 250 लीटर पानी में घोल बनाकर जमीन बखरने के पूर्व नमी युक्त खेत में छिड़कने से अच्छे परिणाम मिलते है।

उड़द में एकीकृत नाशी कीट प्रबंधन :-

    उड़द की फसल में अब तक 15 प्रकार के कीटों द्वारा क्षति दर्ज की गई है।

    कीट प्रकोप द्वारा इस फसल में 17–38 प्रतिशत तक हानि दर्ज की गई है। इनमें से कुछ प्रमुख कीट इस प्रकार है :-

    उड़द के हानिकारक कीटों हेतु उपयोगी रासायनिक, कीटनाशकों की मात्रा

कीट का नाम

कीटनाशक

मात्रा प्रति लीटर पानी

मात्रा / टंकी (15 लीटर पानी)

मात्रा / हे.

बिहार रोमिल, इल्ली, तम्बाकू इल्ली, फली भेदक, फली भृंग एवं अन्य इल्लीयां

क्वीनालफास

2 मी. ली.

30 मी. ली.

500 ली.

सफेद मक्खी

डाईमिथोएट 30 ई. सी.

2 मी. ली.

30 मी. ली.

500 ली.

हरा फुदका

डाईमिथोएट 30 ई. सी.

2 मी. ली.

30 मी. ली.

500 ली.


    उपरोक्त कीटनाशकों का छिड़काव हेतु आवश्यकतानुसार चयन करें। नेपसेक स्प्रेयर (15 ली. क्षमता) की 12 टंकी प्रति एकड़ तथा पॉवर स्प्रेयर की 5 टंकी प्रति एकड़ की दर से उपयोग करें। आवश्यकता होने पर दूसरा छिड़काव पहले छिड़काव से 15 दिन बाद करें।

रासायनिक कीटनाशकों का उपयोग :-

    कीटनाशी रसायन का घोल बनाते समय उसमें चिपको (चिपचिपा पदार्थ) जरूर मिलाएं ताकि वर्षा जल से कीटनाशक पत्ती व पौधों पर से घुलकर न बहें। धूल (डस्ट) कीटनाशकों का भुरकाव सदैव सुबह के समय करें। दो या अधिक कीटनाशकों का व्यापारिक सलाह पर मिश्रण न करें। कीटों में प्रतिरोधकता रोकने हेतु सदैव हर मौसम में कीटनाशक बदल-बदल कर उपयोग करें। कीटनाशक का घोल सदैव पहले डब्बे या मग्गे में बनाए उसके बाद उसे स्प्रेयर की टंकी में पानी के साथ मिलाएं। कभी भी टंकी मे कीटनाशक न डालें।

उड़द में एकीकृत रोग प्रबंधन :-

पीला चित्तेरी रोग :-

    इस रोग की प्रारम्भिक अवस्था में चितकबरे धब्बे के रूप में पत्तियों पर दिखाई पड़ते है। बाद मे धब्बे बड़े होकर पूरी पत्ती पर फैल जाते है जिससे पत्तियों के साथ-साथ पूरा पौधा भी पीला पड़ जाता है। यह रोग सफेद मक्खी कीट के द्वारा फैलता है।

पर्ण व्याकुंचन रोग या झुर्रीदार पत्ती रोग :-

    यह भी विषाणु रोग है। पत्तियों में सामान्य से अधिक वृध्दि तथा झुर्रियां या मरोड़पन लिये हुये तथा खुरदरी हो जाती है। फसल पकने के समय तक भी इस रोग में पौधे हरे ही रहते है। साथ ही पीला चित्तेरी रोग का संक्रमण हो जाता है।

मौजेक मौटल रोग :-

    इस रोग को कुर्बरता के नाम से भी जाना जाता है तथा इसका प्रकोप मूँग की अपेक्षा उर्द पर अधिक होता है। प्रारम्भिक लक्षण हल्के हरे धब्बे के रूप मे पत्तियों पर होते है बाद में पत्तियां सिकुड़ जाती है तथा फफोला युक्त हो जाती है। यह विषाणु बीज द्वारा संचारित होता है।

पर्ण कुंचन :-

    संक्रमित पत्तियों के सिरे नीचे की ओर कुंचित हो जाते है तथा यह भंगुर हो जाती है एसी पत्तियों को यदि उंगली द्वारा थोड़ा झटका दिया जाये तो यह डंठल सहित नीचे गिर जाती है। यह भी विषाणु जनित बीमारी है जो थ्रिप्स कीट द्वारा संचारित होती है।

सरकोस्पोरा पत्ती बुंदकी रोग :-

    पत्तियों पर गहरे भूरे रंग के धब्बे पड़ जाते है। जिनकी बाहरी सतह भूरे लाल रंग की होती है। यह धब्बे पौधे की शाखाओं एवं फलियों पर भी पड़ जाते है। अनुकूल परिस्थितियों में यह धब्बे बड़े आकार के हो जाते है तथा पुष्पीकरण एवं फलियाँ बनने के समय रोग ग्रसित पत्तियाँ गिर जाती है।

श्याम वर्ण (एन्थ्रेकनोज) :-

    उड़द का यह रोग एक फफूँद जनक बीमारी है। पत्तियों एवं फलियों पर हल्के भूरे से गहरे भूरे काले रंग के वृत्ताकार धब्बे दिखाई पढ़ते है। रोग का अत्यधिक संक्रमण होने पर रोगी पौधा मुरझाकर मर जाता है।

चारकोल (मेक्रोफामिना) झुलसा :-

    यह भी एक फफूँद जनित बीमारी है। रोगी पौधों की वृध्दि रुक जाती है जिससे वे बौने दिखाई देते है। रोग से पौधे की फूल एवं फली बनने की क्रिया प्रभावित होती है।

चूर्णिता आसिता :-

    इस बीमारी में सर्वप्रथम पत्तियों की ऊपरी सतह पर सफेद पाउडर जैसी वृध्दि दिखाई देती है जो कवक के विषाणु एवं कवक जाल होते है। रोगी पत्तियां पीली पड़कर झड़ने लगती है। बीमारी से प्रभावित पौधे समय से पूर्व पक जाते हैं जिससे उत्पादन में भारी नुकसान होता है।

रासायनिक प्रबंधन :-

  • पीला चित्तेरी रोग में सफेद मक्खी के नियंत्रण हेतु मेटासिस्टाक्स 0.1 प्रतिशत या डाइमेथोएट 0.2 प्रतिशत प्रति हेक्टेयर (210 मिली/लीटर पानी) तथा सल्फेक्स 3 ग्राम/लीटर का छिड़काव 500–600 लीटर पानी में घोलकर 3–4 छिड़काव 15 दिन के अंतर पर करके रोग का प्रकोप कम किया जा सकता है।
  • झुर्रीदार पत्ती रोग, मोजेक मोटल, पर्ण कुंचन आदि रोगों के नियंत्रण हेतु इमिडाक्लोप्रिड 5 ग्राम/किलोग्राम की दर से बीजोपचार तथा बुवाई के 15 दिन के उपरांत 0.25 मि.ली./लीटर से इन रोगों के रोग वाहक कीटों पर नियंत्रण किया जा सकता है।
  • सरकोस्पोरा पत्र बुंदकी रोग, रुक्ष रोग, मेक्रोफोमिना ब्लाइट या चारकोल विगलन आदि के नियंत्रण हेतु कार्बेन्डाजिम या बेनलेट कवकनाशी (2 मि.ली./लीटर पानी) अथवा मेन्कोजेब 0.30 प्रतिशत का छिड़काव रोगों के लक्षण दिखते ही 15 दिन के अंतराल पर करें।
  • चूर्ण कवक रोग के लिये गंधक 3 कि.ग्रा. (पाउडर)/हेक्टेयर की दर से भुरकाव करें।
  • बीज को ट्राइकोडर्मा विरिडी, 5 ग्राम/कि. ग्रा. बीज की दर से उपचारित करें।

प्रतिरोधी प्रजातियों का चयन :-

पीला चित्तेरी रोग के लिये :-

    पंत उर्द-19, पंत उर्द-30, पी.डी.एम.-1 (बसंत ऋतु), यू.जी.-218, पी.एस.-1, नरेंद्र उर्द-1, डब्ल्यू.बी.यू.-108, डी.पी.यू. 88-31, आई.पी.यू.-94-1 (उत्तरा)

चूर्ण कवक के लिये :-

    एल.बी.जी.-17, एल.बी.जी.-402

जीवाणु पर्ण बुंदकी रोग के लिये :-

    कृष्णा, एच-30, यू.एस.-131

पर्ण व्याकुंचन के रोग के लिये :-

    एस.डी.टी.-3

कटाई एवं गहाई :-

    उड़द की फसल की फलियाँ 80–90 प्रतिशत भूरे काले रंग की हो जाये तो फसल की कटाई कर लेना चाहिये और फसल 5–6 दिन धूप में सुखाने के बाद गहाई करना चाहिये।