रागी उत्पादन की उन्नत तकनीक
भूमि की तैयारी :-
पूर्व फसल की कटाई के पश्चात् आवश्यकतानुसार ग्रीष्म ऋतू में एक या दो गहरी जुताई करें एवं खेत से फसलों एवं खरपतवार के अवशेष एकत्रित करके नष्ट कर देना चाहिए। मानसून प्रारम्भ होते ही खेत की एक या दो जुताई कर पाटा लगाकर जमीन समतल कर लेनी चाहिए ।
बीजदर एवं बोने का उचित समय :-
बीज का चुनाव मृदा की किस्म के आधार पर किया जाना चाहिए। जहां तक संभव हो सके प्रमाणित बीज का उपयोग करें। यदि किसान स्वयं का बीज उपयोग में लाता है तो बुआई के पूर्व बीज साफ करके फफूंदनाशक दवा ( कार्बेण्डाजिम / कार्बोक्सिन / क्लोरोथेलोनिन ) से उपचारित करने के बाद बुआई करें। रागी की सीधी बुआई व रोपा तैयार कर रोपाई भी की जा सकती है। सीधी बुआई जून के अंतिम सप्ताह से जुलाई के मध्य तक मानसून वर्षा होने पर की जाती है। कतार में बुआई करने हेतु बीज दर 8 से 10 किलो प्रति हेक्टेयर की आवश्यकता होती है। कतार पद्धति में दो कतार के बिच की दुरी 22.5 से. मी. एवं पौधे से पौधे की दुरी 10 से. मी. रखें ।
रोपाई के लिए नर्सरी में बीज जून के मध्य से जुलाई के प्रथम सप्ताह तक डाल देना चाहिए। एक हेक्टेयर खेत में रोपाई के लिए बीज की मात्रा 4 - 5 किलो आवश्यकता होती है। एवं 25 - 30 दिन के पौधे होने पर रोपाई करनी चाहिये। रोपाई के समय कतार से कतार व पौधे से पौधे की दूरी क्रमशः 22.5 से. मी. व 10 से. मी. रखनी चाहिये ।
उन्नतशील किस्में :-
रागी की विभिन्न अवधि वाली निम्न किस्मों को मध्यप्रदेश के लिए अनुशंसित किया गया है ।
- जी. पी. यू. 45 :-
यह रागी की जल्दी पकने वाली नयी किस्म है। इस किस्म के पौधे हरे होते है जिसमें मुड़ी हुई बालियाँ निकलती है। यह किस्म 104 - 109 दिन में पककर तैयार हो जाती है एवं इसकी उपज क्षमता 27 - 29 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है। यह किस्म झुलसन रोग के लिये प्रतिरोधी है ।
- चिलिका (ओ. ई. बी. - 10) :-
इस देर से पकने वाली किस्म के पौधे ऊँचे, पत्तियाँ चौड़ी एवं हल्के हरे रंग की होती है। बालियों का अग्रभाग मुड़ा हुआ होता है प्रत्येक बाली में औसतन 6 - 8 अंगुलियों की पायी जाती है। दाने बड़े तथा हल्के भूरे रंग के होते है। इस किस्म के पकने की अवधि 120 - 150 दिन व उपज क्षमता 26 - 27 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है। यह किस्म झुलसन रोग के लिए मध्यम प्रतिरोधी तथा तना छेदक किट के लिये प्रतिरोधी है ।
- शुव्रा (ओ. यू. ए. टी. - 2) :-
इस किस्म के पौधे 80 - 90 से. मी. ऊँचे होते है जिसमें 7 - 8 से. मी. लम्बी 7 - 8 अंगुलियां प्रत्येक बाली में लगती है। इस किस्म की औसत उत्पादन क्षमता 21 - 22 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है। यह किस्म झुलसन रोग के लिये मध्यम प्रतिरोधी तथा पर्ण झुलसन के लिए प्रतिरोधी है ।
- भैरवी (बी. एम. 9 - 1) :-
मध्यप्रदेश के अलावा छत्तीसगढ़, उड़ीसा, कर्नाटक, महाराष्ट्र और आंध्रप्रदेश के लिये यह किस्म उपयुक्त है। इस किस्म के पौधों की पत्तियां हल्की हरी होती है। अंगुलियों का अग्र भाग मुड़ा हुआ होता है व दाने हल्के भूरे रंग के होते है। यह किस्म 103 - 105 दिन में पककर तैयार हो जाती है। तथा उत्पादन क्षमता 25 - 30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है। यह किस्म झुलसन रोग, भूरा धब्बा रोग तथा तना छेदक कीट के लिये मध्यम प्रतिरोधी है ।
- व्ही. एल. - 149 :-
आंध्रप्रदेश व तमिलनाडु को छोड़कर देश के सभी मैदानी एवं पठारी भागों के लिये यह किस्म उपयुक्त है। इस किस्म के पौधों की गांठे रंगीन होती है। बालियां हलके बैंगनी रंग की होती है। एवं उनका अग्रभाग अंदर की ओर मुड़ा हुआ होता है। इस किस्म के पकने की अवधि 98 - 102 दिन व औसत उपज क्षमता 20 - 25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है। यह किस्म झुलसन रोग के लिये प्रतिरोधी है ।
खाद एवं उर्वरक का प्रयोग :-
मृदा परीक्षण के आधार पर उर्वरकों का प्रयोग सर्वोत्तम होता है। असिंचित खेती के लिये 40 किलो नत्रजन व 40 किलो फास्फोरस प्रति हेक्टेयर की दर से अनुशंसित है। नत्रजन की आधी मात्रा व फास्फोरस की पूरी मात्रा बोआई के समय उपयोग करें तथा नत्रजन की शेष मात्रा अंकुरण के 3 सप्ताह बाद प्रथम निदाई के उपरांत समान रूप से खेत में डालें। गोबर खाद अथवा कम्पोस्ट खाद 100 क्विंटल प्रति हेक्टेयर का उपयोग अच्छी उपज के लिये लाभदायक पाया गया है। जैविक खाद एजोस्पाइरिलम, ब्रेसीलेन्स एवं एस्परजिलस अवामूरी से बीजोपचार 25 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से लाभप्रद पाया गया है ।
अंतः शस्य क्रियाएं :-
रागी की फसल को बोआई के बाद प्रथम 45 दिन तक खरपतवारों से मुक्त रखना आवश्यक है अन्यथा उपज में भारी गिरावट आ जाती है। अतः हाथ से एक निदाई करे अथवा बुआई या रोपाई के 3 सप्ताह के अंदर 2, 4 - डी सोडियम साल्ट (80 प्रतिशत) की एक किलो मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करने से चौड़ी पत्ती वाले खरपतवार नष्ट किये जा सकते है। बालियां निकलने से पूर्व एक और निंदाई करें ।
फसल पद्धति :-
रागी की 8 कतारों के बाद अरहर की दो कतार बोना लाभदायक पाया गया है ।
पौध संरक्षण :-
रोग - व्याधियाँ :-
फफूंदजनित झुलसन एवं भूरा धब्बा रागी की प्रमुख रोग - व्याधियाँ है जिनका समय पर निदान आवश्यक है जिससे की उपज में होने वाली हानि को रोका जा सकें ।
- झुलसन :-
संक्रमित पौधों की पत्तियों मे भिन्न - भिन्न माप के आँख के समान धब्बे बन जाते है। जो मध्य मे धूसर व किनारों पर पीले - भूरे रंग के होते है। अनुकूल वातावरण में यह धब्बे आपस में मिल जाते है व पत्तियों को झुलसा देते है। बालियों की ग्रीवा व अंगुलियों पर भी फफूंद का संक्रमण होता है। जिस कारण उपज की गुणवत्ता व मात्रा प्रभावित होती है ।
- बोआई के पूर्व बीजों को फफूँदनाशक दवा मेनकोजेब, कार्बेण्डाजिम या इनके मिश्रण से 2 ग्राम / किलो बीज दर से उपचारित करें ।
- खड़ी फसल पर लक्षण दिखाई देने पर कार्बेण्डाजिम या मेनकोजेब 2.5 ग्राम / लीटर पानी की दर से छिड़काव करें । 10 – 12 दिन के बाद छिड़काव पुनः करें ।
- रोग प्रतिरोधी किस्मों जैसे जी. पी. यू. 45, चिलिका, शुव्रा, भैरवी, व्ही. एल. 149 का चुनाव करें ।
- भूरा धब्बा रोग :-
इस फफूँदजनीत रोग का संक्रमण पौधे के सभी अवस्थाओं में हो सकता है । प्रारंभ में पत्तियों पर छोटे – छोटे हल्के भूरे एवं अंडाकार धब्बे बनते है । बाद में इनका रंग गहरा भूरा हो जाता है । अनुकूल अवस्था में यह धब्बे आपस में मिलकर पत्तियों को समय से पूर्व सुखा देते है । बालियों एवं दानों पर संक्रमण होने पर दोनों का उचित विकास नहीं हो पता, दाने सिकुड़ जाते है जिससे उपज में कमी आती है ।
रोकथाम :-
- बोआई के पूर्व बीजों को फफूँदनाशक दवा मेनकोजेब, कार्बेण्डाजिम या इनके मिश्रण से 2 ग्राम / किलो बीज दर से उपचारित करें ।
- खड़ी फसल पर लक्षण दिखाई देने पर कार्बेण्डाजिम या मेनकोजेब 2.5 ग्राम / लीटर पानी की दर से छिड़काव करें । 10 – 12 दिन के बाद छिड़काव पुनः करें ।
- रोग प्रतिरोधी किस्मों जैसे भैरवी का बोआई हेतु चयन करें ।
कीट :-
तना छेदक एवं बालियों की सूँडी रागी की फसल के प्रमुख कीट है ।
- तना छेदक :-
वयस्क कीट एक पतंगा होता है जबकि लार्वा तने को भेदकर अंदर प्रवेश कर जाता है एवं फसल को नुकसान पहुचाता है । कीट के प्रकोप से “डेड हार्ट” लक्षण पौधे पर दिखाई देते है ।
रोकथाम :-
- कीटनाशक दवा डाइमेथोऐट का छिड़काव करें ।
- कीट प्रतिरोधक किस्म चिलिका का बोआई हेतु चयन करें ।
- बालियों की सूँडी :-
इस कीट का प्रकोप बालियों में दाने बनने के समय होता है । भूरे रंग की रोयेदार इल्लीयां रागी की बंधी बालियों को नुकसान पहुँचाती है जिसके फलस्वरूप दाने कम व छोटे बनते है ।
रोकथाम :-
- क्विनॉलफास (1.5 %) या थायोडन डस्ट (4 %) का प्रयोग 24 किलो / हेक्टेयर की दर से करें ।
No comments:
Post a Comment